शिकार खेलना है तो ढोरपाटन जाएं

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शिकार खेलना है तो ढोरपाटन जाएं

डॉ शारिक़ अहमद ख़ान 
नेपाल के ढोरपाटन में शिकारगाह है.ये शिकारगाह सरकारी है और वहाँ शिकार खेलना लीगल है.बात बीती सदी के शुरू के बरसों की है.मार्च का महीना था.एक बार हम और हमारे दोस्त सीपी सिंह कुछ महीनों पहले नेपाल गए थे.अब नेपाल की दूसरी यात्रा के लिए कमर कसी.पिछली बार हम लोग हीरो होंडा सीडी100 से नेपाल के तानसेन तक गए थे.जब आज़मगढ़ वापस आकर सर्विसिंग के लिए बाइक को मिस्त्री के पास ले गए थे तो मिस्त्री ने हमको ऊपर से नीचे तक देखा था और कहा था कि इस मोटरसाइकिल के साथ बलात्कार हुआ है.वजह कि हम लोगों ने सौ सीसी की बाइक को पहाड़ पर चढ़ा दिया था. 
ख़ैर अब तक हमने दूसरी बाइक स्पलेंडर ले ली थी लेकिन इस बार अपनी स्पलेंडर से जाना भी ठीक नहीं था.साथ जाने वाले दोस्त दोस्त सीपी सिंह के पास हीरो होंडा सीबीज़ेड थी.वो भी डेढ़-पौने दो सौ सीसी रेंज की थी इसलिए कमज़ोर पड़ती.इसलिए गांव से चाचा की नई बुलेट मंगा ली गई.हम लोगों ने हर इंस्ट्रक्शन को फ़ालो किया.मसलन गम बूट,दूरबीन,गर्म कपड़े, वग़ैरह तैयार कर लिए.बाकी सामान वहाँ उपलब्ध होने थे.हमने डैडी से शिकार खेलने की बात बताई.डैडी ने इजाज़त दे दी.हमको हरी झंडी मिल गई.सी. पी. सिंह ने अपने पापा से बताया.उनके पापा हिंदी कम ही बोलते थे.शानदार शख़्सियत थी उनकी.उन्होंने अंग्रेज़ी में जाने की परमीशन दे दी.ये भी कहा कि शिकार खेलना ही चाहिए.यहाँ पाबंदी है तो नेपाल जाकर खेलो.मैंने अपने जीवन में ख़ूब शिकार खेले. 
1972 से पहले जब शिकार पर यहाँ कोई पाबंदी नहीं थी.इसलिए मेरे बेटे को भी शिकार खेलना चाहिए,नेपाल में ही सही.मतलब उनको भी हरी झंडी मिल गई.ढोरपाटन की शिकारगाह में शिकार खेलने की सिर्फ़ फ़ीस ही 30000 भारतीय रूपये प्रति व्यक्ति थी.दो लोगों की साठ हज़ार.हम लोगों को घर से पर्याप्त पैसे मिल गए,आजकल तो सुना है कि एक व्यक्ति की फ़ीस ही 1000000 भारतीय रूपये से ज़्यादा है.मतलब अब दो लोग जाएँ तो कम से कम बीस लाख रूपये फ़ीस ही भरनी पड़ेगी,बाकी ख़र्च अलग.ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि आजकल वो जगह मशहूर हो गई है और नेपाल सरकार को फ़ीस डॉलर में मिलती है.ज़्यादातर डालरपति ही वहाँ जाते हैं.दूसरी बात कि उस वक़्त सरकार ही शिकार आयोजित करवाती थी और आजकल प्राइवेट कंपनियाँ ठेका ले चुकी हैं.वैसे तीस हज़ार भी उस समय कम रक़म नहीं थी लेकिन आजकल के हिसाब से फिर भी कम है.अब कोई हमसे कहे कि चलिए नेपाल में शिकार खेला जाए तो हम बिल्कुल नहीं जाने वाले,वजह कि अब अपने अकाउंट से पैसा जाएगा.शिकार खेलने का दस लाख,ना रे बाबा ना.उस वक़्त डैडी के एकाउंट से गया था और सिंह साहब का उनके पापा के अकाउंट से निकला था.भारत में रवायत है कि छात्र जीवन में पिता की दौलत दिल खोल के उड़ाई जाती है.बाद में अपनी नहीं उड़ाई जाती,बचाई जाती है.जिस दिन नेपाल के लिए निकलना था उस दिन निकलते -निकलते ही दिन का लगभग बारह बज गया.वजह कि बड़ा  टूरिस्ट पिट्ठू बैग आज़मगढ़ में खोजते रहे लेकिन नहीं मिला.जो बैग थे उन्हीं से काम चलाया और सिंह साहब ने इतने तरीके से बैग वग़ैरह बाइक में बाँध लिए थे जैसे वो ऐसे सफ़र पहले भी कर चुके हों या फिर अंग्रेज़ बाइकर हों.दो नए ट्यूब और हवा भरने के हैंडीपंप समेत चक्का खोलने और बाइक बनाने का सारा हरबा-हथियार रख लिया गया.हर किस्म की दवाएं और फर्स्ट एड के सामान हमने सही कर लिए.जीप भी आप्शन थी,

जीप मेरे पास थी.लेकिन जीप का लंबा कागज़ी कोरम बार्डर पर पूरा करना पड़ता और उसकी अलग से फ़ीस भी भरनी पड़ती.दूसरी वजह कि जिस रास्ते पर हम लोग जा रहे थे वहाँ जीप जगह -जगह फँस जाती.सामने से कोई गाड़ी आ जाती तो नागिन सी बल खाती क़रीब जीप बराबर चौड़ी पहाड़ी सड़कों पर जीप को बैक करके जगह ढूंढने में कुल करम हो जाता.हो सकता है कि इस चक्कर में मेरी या सामने वाली गाड़ी खड्ड में भी गिर जाती.आगे जाकर रास्ते में हम लोगों ने देखा भी कि अच्छा हुआ जीप से नहीं आए वरना कई जगह तो जीप निकलने लायक रास्ता ही नहीं था.निकालने की कोशिश में जीप पक्का पलट जाती.ऐसा हम कह रहे हैं जिसने ऐसे मिलिट्री के ड्राइवर राधेश्याम राय से जीप चलाने का प्रशिक्षण लिया था जो भारत -चीन युद्ध में भारतीय सेना के ड्राइवर के तौर पर बार्डर पर थे और ड्राइविंग में कई मेडल पाए थे.बाद में मेरे पिता के वाहनों के ड्राइवर हुए.राय साहब ने नेहरू जी की भी गाड़ी चलाई.महाराज ग्वालियर,महाराज नेपाल,जेआरडी टाटा,दारा सिंह,अशोक चटर्जी समेत कई हस्तियों की भी गाड़ी चलाई थी.राय साहब ने हमें जीप से अंग्रेज़ी का आठ बनाना,जीप दो चक्के पर चलाना.जीप को जंप कराना और आख़िरी दांव के रूप में गुरुमंत्र ' हनुमान गियर ' लगाना सिखाया था.हनुमान गियर बहुत ज़ोरदार दांव है,इसकी काट नहीं है,हम अभी तो किसी को नहीं बताएंगे लेकिन बुढ़ापे में जाते -जाते किसी योग्य शिष्य को ये दांव बताकर ही इस दुनिया से कूच करेंगे.बीच में चले गए तो हनुमान गियर हम पर ही ख़त्म होना तय है.ख़ैर बुलेट बाइक से यात्रा शुरू हुई और गोरखपुर होते हुए सोनौली बार्डर पहुँचे.वहाँ से नेपाल के  बुटवल में दाख़िल हो गए.बुटवल से दो रंगीन शीशे वाले हेलमेट ख़रीदे.दुकानदार कह रहा था कि किराए पर लेते जाइये.लौटते में वापस कर दीजिएगा लेकिन हम लोगों ने नया हेलमेट ख़रीदना ही मुनासिब समझा.बुटवल में बाइक की टंकी फ़ुल करा ली और एहतियात के तौर पर एक लोहे की जरकिन में मिल रहा दस लीटर पेट्रोल का डिब्बा भी ख़रीद लिया.डिब्बा बांध लिया गया.जंगली जानवरों से सुरक्षा के लिए गुप्ती और नेपाली खुखरी भी ख़रीद ली.अब तक शाम गहरा चुकी थी लिहाज़ा बुटवल में ही होटल ले लिया और सुबह छह बजे ढोरपाटन के लिए कूच करने का इरादा बनाया.तय कार्यक्रम के अनुसार बुटवल से सुबह छह बजे कूच हो गया ताकि शाम तक किसी हाल में ढोरपाटन पहुँच जाएँ.वहाँ से ढोरपाटन लगभग दो सौ किलोमीटर था.रास्ता बेहद ख़राब और दुर्गम.जब बुटवल से तानसेन पहुँचे तो कस्बे में पहुँचते ही पता चला कि वहाँ ज़ोरदार बमबाज़ी और फ़ायरिंग हो रही है.माओवादियों से सेना और पुलिस का मुकाबला चल रहा था.आवाज़ें आ रहीं थीं.लेकिन पब्लिक सामान्य थी.वजह कि वहाँ ये रोज़ का टंटा था.देखा कि वहाँ की सेना और पुलिस के पास आधुनिक हथियार थे.जबकि हमारे यहाँ की पुलिस के पास उस समय पचासों साल पुराने हथियार थे.ज़ंग लगी और कई बार जाम हो जाने वाली संगीनों वाली रायफ़लें थीं. देखकर लगा कि ग़रीब देश नेपाल अपने नागरिकों की हिफ़ाज़त के लिए जी खोलकर हथियारों के मद में ख़र्च करता है.

हम लोगों ने तानसेन में खाना खाया और तानसेन से अमरही रोड पर बढ़े.रास्ता संकरा और गिट्टीदार था.गहरी खाइयाँ नमूदार थीं.बाइक चलाने में ज़रा भी चूके तो गए सैकड़ों मीटर गहरी खाई में.अमरही तक मुझे मतलब शारिक़ को बाइक चलाना था और उसके आगे अगले पचास किलोमीटर सीपी सिंह को चलानी थी.हम लोग बारी-बारी से बाइक चलाते थे.बीच -बीच में रुकते हुए बढ़ रहे थे.अमरही आ गया.चाय पी गई.जैसे-जैसे पहाड़ पर चढ़ते जाते लोगों की शक्लों में ये तब्दीली आती जाती कि पहाड़ की चढ़ाई पर  बढ़ते क्रम में वहाँ के लोगों की नाक और चिपटी और आँखें छोटी छोटी होती जातीं.चेहरे का रंग गोरा होता जाता.नेपालियों के गालों पर हल्का लालपन बढ़ा दिखता.तब नेपाली बहुत पिछड़े हुए थे.आज तो बहुत आगे बढ़ गए हैं और चालाक भी हो गए हैं.उस वक्त पहाड़ों पर वैसे ही नेपाली दिखते थे जैसे भारत की सड़कों पर हींग बेचने वाले नेपाली.बड़ी म्यानी का चुस्त नेपाली पाजामा पहने.अब तो चीन से आई जींस वहाँ के बूढ़े भी पहन रहे हैं.ख़ैर,अमरही से बुर्टिबांग के लिए बढ़े.रास्ते में एक आदमी दिखा तो उससे रास्ते के बारे में पूछा.जारी 

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