हलवा निखालिस अरबी चीज है

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हलवा निखालिस अरबी चीज है

अशोक पांडे 
हलवाई शब्द की उत्पत्ति हलवे से हुई है. लेकिन हलवा अपने आप में निखालिस अरबी चीज है और अरबी शब्द ‘हल्व’ से निकला है .जिसका मतलब होता है मीठा. एक जमाने के तुर्की में तिल के बीजों को पीसकर उसमें शहद मिलाकर भी हलवा बनाया जाता था.  

चौदहवीं शताब्दी के मशहूर यात्री इब्न बतूता ने अपने सफरनामे में दर्ज किया है कि उसने आम भारतीयों की रसोई में हलवा पकाया जाता देखा था. बग़दाद की शाही रसोई में सुलतान के लिए ग्यारह देगों में ग्यारह तरह का हलवा पकता जिनके मुकर्रादा और लुक्मेतुज्कादी जैसे नाम थे. तुर्की के कास्तामोनू नगर में उसने पाया कि फहरुद्दीन बेग के जाविये में पधारने वाले दरवेशों की खिदमत में डबलरोटी, चावल और मांस के अलावा हलवा भी परोसा जाता था. 

कल्ट मानी जाने वाली किताब ‘गुज़िश्ता लखनऊ’ में मौलाना हलीम शरर कयास करते हैं कि हलवा अरब से ईरान होता हुआ हिन्दुस्तान पहुंचा. लिखते हैं, “लेकिन बजाहिर यह आम फैसला नहीं हो सकता. इसमें मतभेद है. तर हलवा जो अमूमन हलवाइयों के यहाँ मिलता है और पूरियों के साथ खाया जाता है, वह खालिस हिन्दू चीज है जिसे वह मोहनभोग भी कहते हैं. मगर हलवा सोहन की चार किस्में – पपड़ी, जौजी, हबशी और दूधिया – निखालिस मुसलमानों की मालूम होती हैं.” 

सोहन हलवे की हिस्ट्री में प्रविष्ट होते हुए मौलाना कलकत्ते के मटियाबुर्ज के एक रईसजादे मुंशीयुस्सुल्तान बहादुर का जिक्र करते हैं जो “छटांक भर समनक (गेहूँ का गूदा) में दो ढाई सेर घी खपा देते. उनका पपड़ी हलवा सोहन बजाय जर्द के धोये कपड़े के मानिंद उजला और सफ़ेद होता.”  
 
हो सकता है हलवा हमारे यहां और भी पहले से हो लेकिन पांचेक सौ बरस पहले उसे दिल्ली की मुग़लिया सल्तनत के बावार्चीखानों में ऊंची जगह मिली जिसके बाद उसने समूचे भारत को अपने कब्जे में ले लिया. 

मेरा ठोस यकीन है  कि पृथ्वी की सतह पर उगने वाले किसी भी अन्न, साग, फल, जड़, तने, फूल या बौर को हलवे में बदल सकने वाले हमारे देश के हलवाई इस दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिक हैं. अमरीका वाले कितने ही एटम बम बना-फोड़ लें, रूस वाले मंगल-बृहस्पति पर कितने ही स्पुतनिक पहुंचा दें, लौकी जैसी भुस चीज को सुस्वादु हलवे में रूपांतरित करना सीखने के लिए उन्हें इन्हीं मनीषियों की शरण में आना होगा. इन वैज्ञानिकों की अनुकम्पा से हमारे देश में पाए जाने वाले हलवे की विविधता हमारे भौगोलिक विस्तार जितनी ही वृहद और विषद बन चुकी है.  

हालिया बखत में हमारे यहाँ संपन्न लोगों की संख्या बढ़ी है. तरह तरह के हलवे खा सकने की औकात इसी तबके के पास होती है. संपन्नता की वजह से संपन्न लोगों में तमाम अवांछित बीमारियां आ लगी हैं और उन्होंने हलवे से डरना शुरू कर दिया है. एक कटोरी हलवा खाकर सुबह दो घंटे की कसरत करनी पड़े तो क्या फायदा. चिंता और भय के नहीं हलवा आनंद के उत्पादन लिए ईजाद किया गया था.  

इधर हमारे यहाँ एक सज्जन ने एलोवेरा और ओट्स का हलवा बना कर बेचना शुरू किया है. उनका दावा है आदमी आधा-आधा छटांक कर के साल भर में डेढ़ पाव एलोवेरा का हर्बल हलवा खा ले तो सर्दियों में एक मौसम में कम से कम दस किलो गाजर का हलवा पचा-निबटा सकता है. गारंटी!  
गरीब जनता इस विज्ञान-विमर्श से बाहर रहती आई है. वह हजार साल पहले भी आटे-गुड़ का ही हलवा खाती थे और आज भी वही खा रही है.

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