सुभाष तराण
पहाड पर मेरे घर के नीचे जो सदानीरा नदी बहती है उसका ज्यादातर पानी पहाडों पर बर्फ पिघलने के बाद आता है. हिमालय के एक छोटे से ग्लेशियर से निकलने वाली यह नदी भले ही मौसम के अनुरूप रंग बदलती रहती है लेकिन ऐसा कभी नही हुआ कि इसमें पानी सूख गया हो. बचपन के दौरान किताबों में जब पहली बार नदियों के बारे में पढ़ा गुना तो बाल मन इसी नतीजे पर पहुंचा कि सारी दुनियां की तमाम नदियां ऐसी ही होती होगी. मुझे बचपन से ही नदी के पास बैठना बहुत अच्छा लगता है. बचपन मे अपने मासूम जेहन में तमाम किस्म की छोटी मोटी परेशानियों और बेचैनियों का बोझ लिए मैं जितनी देर नदी के किनारे बैठ कर उसकी शीतलता को महसूसता और उसके बहाव को निहारता, उतनी देर के लिए खुद को हल्का महसूस करता. पता ही नही चला, जीवन की जद्दोजहद में कब नदी के छोर मेरी आदतों में शुमार हो गये.
समय ने करवट बदली और मुझे अपने गाँव से दर बदर होना पड़ा. पहाड के हर किशोर की तरह मेरी भी यही नियति थी. पहाड पर अपने गाँव को छोडकर जब शहर को आया तो नदी के किनारों का मोह बना रहा. यह मोह आज भी बरकरार है. बचपन की वह सदानीरा नदी पीछे छूट चुकी है.
हालांकि पहले पहल मुझे बरसाती नदियाँ भी पहाड मे अपने घर के नीचे बहती नदी के जैसी ही मालूम होती थी लेकिन वक्त गुजरने के साथ पता चला कि ये तो मौसमी नदियाँ है. ये बरसात में उफान पर जरूर रहती है लेकिन बाकी समय इन में बिलकुल सूखा बना रहता है. मुझे यह जानकर बडा अचंभा हुआ कि नदियां मौसमी भी होती है. अपने छुटपन के दौरान मुझे इस बात पर यकीन ही नही होता था. मुझे लगता था नदियों का काम तो बहना है उन्हे तो सारी दुनिया में एक जैसा ही होना चाहिए. लेकिन यह मेरा भ्रम था. नदियों की भी अपनी प्रकृति होती है, यह बात मुझे धीरे-धीरे समझ में आई जबकि नदी के किनारे मेरी आदतों में बचपन से ही शुमार हो चुके थे.
शहर आया तो मैने यहाँ भी एक नदी ढूँढ ली. शहर से थोडी दूर केवल बरसात के दौरान बहने वाली इस मौसमी नदी के किनारे मैं कुछ देर के लिए सबकुछ भुलाकर शांत चित होकर बैठ जाता. अपनी मटमैली मांसलता और तेज बहाव के साथ शहर के छोर पर बहती मौसमी नदी बरसात में मुझे बहुत भली लगी. उमस वाले माहौल में उसकी ठंडक, उसका उफान, उसके शोर और उससे उठती मिट्टी की गंध ने मेरे जेहन को एक नये स्वाद की अनुभूति से भर दिया. उसका यह मिजाज मेरे जेहन को ताजा दम कर देता. लेकिन यह सब क्षणिक था. हर मौसम के अपने रंग होते हैं. बरसातें गुजरी तो धीरे धीरे शहर के छोर पर बहने वाली उस नदी से पानी गायब हो गया.
मैं मौसम बदलने के बाद भी अक्सर शहर की उस नदी के किनारे इस उम्मीद से जाता रहता हूँ कि मुझे वहाँ पानी का पहले जैसा बहाव मिलेगा, लेकिन अफसोस! अब वहां न तो पानी रहता है न ठंडक होती है और न ही मिट्टी की गंध. वहाँ अजीब सा रूखापन रहता है. वहाँ अब शोर नही होता, वहाँ तो अब एक ऐसी खामोशी पसरी पडी मिलती है जिसके अपने ही हजार दुख है. जहाँ कभी मांसल मटमैला पानी पूरे वेग से इठलाता हुआ बहता हो वहाँ अगर धूल भरा रौखड़ पसरा पड़ा हो तो ऐसी हालात में वहाँ किसी सुकून की क्या उम्मीद.
यह जानते हुए भी कि मौसमी नदियों में बारीश के दौरान ही पानी रहता है, मैं अक्सर रौखड का रूप धर चुकी उस नदी के वजूद को टटोलता हुआ पानी की तलाश में उसके उद्गम की तरफ बहुत दूर चला जाता हूँ. नमी का कहीं कोई निशान न पाकर अपनी तमाम परेशानियों तथा बेचैनियों का भार दूना कर वापिस लौट आता हूँ और आँखें बंद कर अपने जेहन में पहाड़ पर मेरे घर के नीचे बहती उस सदानीरा नदी को अपने जेहन में टटोलने की कोशिश करता हूँ.
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