डॉ शारिक़ अहमद ख़ान
काले अंग्रेज़ी बाबू लोग चाय के कप के नीचे लगी छोटी सी प्लेट को 'सॉसर' कहते हैं,लेकिन हमारे आज़मगढ़ के मुस्लिम कल्चर में इसको 'फिरिच-फ्रिच-फ़्रिच' कहा जाता है.कप से चाय को फ्रिच में ढालकर पीने का अपना अलग ही मज़ा है.हमारे बचपन में हमारे गाँव में रमज़ान के महीने में बाद इफ़्तार ख़ूब फ़्रिचें निकला करतीं,इसी में ढालकर चाय पी जाती.चाय से पहले शर्बत पियाई होती,रूह अफ़ज़ा का जलवा था,नींबू का शर्बत भी बनता.तब बिजली बहुत कटा करती,फ़्रिज में ज़्यादा बर्फ़ जम नहीं पाती,गर्मी के दिनों में शर्बत के लिए बाज़ार से बर्फ़ आया करती जो जूट के बोरे से ढककर रखी जाती.जिस दिन बर्फ़ नहीं आती उस दिन गाँव के एक कुएँ से कहार पानी काढ़कर लाते.उस कुएँ का पानी बहुत ठंडा होता था,हमारे दुआरे के कुएँ के पानी से भी ठंडा.उसी से शर्बत बनता.
हमारे गाँव का वो कुआँ एक पोखरे के किनारे था और उस कुएं का नाम 'बाबा बच्चा ख़ाँ ' का कुआँ था.बाबा बच्चा ख़ाँ कौन थे,किस सदी में थे ये किसी को नहीं मालूम था,बस कुएँ की वजह से बच्चा ख़ाँ का नाम ज़िन्दा था.बाबा बच्चा ख़ाँ के कुएँ के पानी के शर्बत में तुख़मलंगा ज़रूर पड़ता,तब शर्बत और ठंडा-ठंडा कूल-कूल हो जाता.बहरहाल,हम रोज़ा नहीं हैं लिहाज़ा अभी हमने पहले रूह अफ़ज़ा खींचा और बाद में चाह.चाह मने चाय.एक गटरछाप शराबी जितना महँगी शराब देखकर ख़ुश नहीं होता उससे ज़्यादा रोज़ेदार की रूह रूह अफ़ज़ा देखकर मगन होती है,रोज़ेदार रूह अफ़ज़ा बनाने वाले को दुआएँ देता है.ख़ैर,हमारे बचपन में हमारे दुआरे सुबह सेहरी के वक़्त चाय की मांग ज़्यादा रहा करती,ज़मींदारी ख़त्म हो गई थी लेकिन रंग ज़मींदारी वाला ही था,आज भी है,प्रजापालक का रंग,ना कि शोषक का.रोज़े में सेहरी से घंटा भर पहले ही चमटौली से हरिजन आ जाया करते,वो अपनी ख़ुशी से आते और दुआरे झाड़ू लगाना शुरू करते,कुएँ की जगत पर अहीर और कहार आकर बैठ जाते,जब सेहरी हो जाती तो हरिजनों को नाश्ता मिलता,उसे 'खरमिटाव' कहा जाता,हरिजन ख़ुश होते कि खरमिटाव मिल जाता है,वरना बहुत से सवर्ण हिंदुओं के यहाँ की प्रजा रहे हरिजन सुबह से जब खेती के काम में जुट जाते तो कई बार भूखे खटने की वजह से 'खरसेवर' का शिकार हो जाते,खरसेवर मतलब 'हाइपोग्लाईसीमिया'.अहीर और कहार हमारी प्रजा ज़रूर थे लेकिन वो मुसलमान के हाथ का नहीं खाते,अहीर और कहार शाकाहारी होते,इनको सीधा मिलता,सीधा मतलब कच्चा राशन वग़ैरह,जिसे वो उपलों पर बनाया करते.जजमानी प्रथा थी,आज भी है,हम लोग भले मुसलमान हों,भले हमारे क़रीब दस हज़ार की आबादी वाले गाँव में ग़ैर हरिजन तीस के क़रीब हिंदू हों, लेकिन जजमानी में धोबी-नाऊ-बरई-कहार-बाभन का भी हिस्सा रहता और आज भी है,बाभन दूर के गाँव से आते,हमारे यहाँ तिवारी बाभन की जजमानी है,हर फ़सल पर आज भी आते हैं,एक बार मय तस्वीर ईद वाले दिन हमने तिवारी जी का यहाँ फ़ेसबुक पर दर्शन भी कराया था.बहरहाल,सॉसर मतलब फ़्रिच की बात करें तो सवाल उठता है कि फ़्रिच तो मुस्लिम कल्चर का हिस्सा थी नहीं,वजह कि हमारे आज़मगढ़ के इलाक़े में चाय का प्रचलन आज़ादी के बाद ही हुआ,तब फ़्रिच आयी कहाँ से.तो उसका जवाब ये है कि फ़्रिच का कल्चर बॉम्बे के पारसियों के ईरानी चायख़ानों से आया,ईरानी चायख़ानों में चाय के साथ फ़्रिच ज़रूर मिलती,जब हमारे आज़मगढ़ और आसपास से लोग बॉम्बे कमाने गए तो फ़्रिच भी उनके साथ बॉम्बे से चलकर उनके मुलुक में आ गई.
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