बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में टीएमसी की हैट्रिक

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बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में टीएमसी की हैट्रिक

प्रभाकर मणि तिवारी 
महिला वोटरों का समर्थन, जंगलमहल के अलावा कांग्रेस का गढ़ रहे मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों में बेहतर प्रदर्शन और अपने मजबूत गढ़ को बचाने में कामयाबी की वजह से ही पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी है. भाजपा ने इस चुनाव में अपने तमाम संसाधन झोंक दिए थे. लेकिन दो सौ से ज्यादा सीटें जीतकर सरकार बनाने वाली पार्टी को चुनावी नतीजों से गहरा झटका लगा है. हालांकि वह वर्ष 2016 की तीन सीटों के मुकाबले इतनी सीटें पा कर शानदार प्रदर्शन का दावा जरूर कर सकती है और इस कामयाबी में कोई संदेह भी नहीं है. लेकिन वर्ष 2019 के आंकड़ों के लिहाज से उसका प्रदर्शन खराब रहा है. पार्टी ने दो सौ सीटें जीतने की जो रणनीति बनाई थी उसके पीछे 2019 लोकसभा चुनाव का वह आंकड़ा ही था जिसमें उसे 121 सीटों पर बढ़त मिली थी. लेकिन भाजपा इस आंकड़े को भी नहीं छू सकी है. 

इस बार पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव करीब एक दशक का सबसे अहम चुनाव था. भाजपा ने जिस तरह बहुत पहले से यहां सत्ता हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंकी थी उससे कई बार भ्रम होता था कि शायद अबकी ममता बनर्जी के हाथों से सत्ता निकल जाएगी. पूरी केंद्र सरकार के अलावा पार्टी के कई मुख्यमंत्रियों की ओर से बड़े पैमाने पर चलाए गए चुनाव अभियान के दौरान ऐसा माहौल बना था कि कई राजनीतिक विश्लेषकों को भी पार्टी सत्ता पर काबिज होते नजर आ रही थी. कुछ विशेषज्ञ इसे कांटे की टक्कर बता रहे थे तो कुछ त्रिशंकु विधानसभा तक की भविष्यवाणी कर रहे थे. भाजपा ने शुरुआती दौर से ही धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण के अलावा जातिगत पहचान की राजनीति (पढ़ें--मतुआ और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति) और भ्रष्टाचार का अपना सबसे बड़ा मुद्दा बनाया था. लेकिन चुनावी नतीजों से साफ है कि यह मुद्दे उसे सत्ता दिलाने में नाकाम रहे हैं. एक वाक्य में कहा जाए तो बांग्ला अस्मिता के मुकाबले भाजपा का हिंदुत्व का मुद्दा अबकी बेअसर साबित हुआ है. 

आखिर क्या वजह है कि भाजपा के चौतरफा हमलों और इतने बडे पैमाने पर चले चुनाव अभियान के बावजूद ममता अपनी सरकार बचाने में कामयाब रही हैं? दरअसल इसकी कई वजहें हैं. तृणमूल कांग्रेस ने इस जंगलमहल इलाके के अलावा हुगली जिले में बेहतर प्रदर्शन किया है जिसे भाजपा अपना गढ़ मान कर चल रही थी. भाजपा ने अंफान के दौरान राहत सामग्री में भ्रष्टाचार के जो आरोप लगाए थे उसका दक्षिण 24-परगना जिले की सीटों, जो तृणमूल का गढ़ मानी जाती हैं, पर खास असर नहीं नजर आया. इसी तरह सिंडीकेट और तोलाबाजी यानी उगाही जैसे मुद्दे हों या फिर अपने भतीजे सांसद अभिषेक बनर्जी के संरक्षण के आरोप, आम लोगों पर कोई असर नहीं पड़ा है. इसके अलावा अपनी तमाम योजनाओं की वजह से महिलाओं का भी समर्थन ममता को मिला है. देश की अकेली महिला मुख्यमंत्री होना भी इस समर्थन की एक वजह रहा. वह आम लोगों तक यह संदेश देने में कामयाब रही कि एक अकेली महिला पर प्रधानमंत्री से लेकर तमाम केंद्रीय मंत्री और नेता चौतरफा हमले कर रहे हैं और चुनाव अभियान में भारी रकम खर्च की जा रही है. प्रधानमंत्री मोदी दीदी ओ दीदी कह कर अपनी रैलियों में ममता जिस तरह खिल्ली उड़ाते रहे, उसे ममता ने अपने पक्ष में बेहतर तरीके से भुनाया. परचा दाखिल करने के दिन ही नंदीग्राम में पांव में चोट लगना और व्हीलचेयर के सहारे पूरा चुनाव अभियान चलाना भी ममता के पक्ष में गया. उन्होंने भाजपा पर बाहरी होने के जो आरोप लगातार लगाए उसका भी वोटरों पर असर पड़ा. 

ममता बनर्जी आठ चरणों में चुनाव कराने से लेकर तमाम पुलिस अधिकारियों के तबादले तक चुनाव आयोग को जिस तरह लगातार कठघरे में खड़ा करती रहीं उसका भी उनको फायदा मिला. खासकर आखिरी तीन-चार चरणों में जब राज्य में तेजी से कोरोना संक्रमण बढ़ा तब भी ममता ने इसके लिए आयोग को जिम्मेदार ठहराया और बाकी चरणों के चुनाव एक साथ कराने की मांग उठाती रहीं. इससे विपत्ति में आम लोगों के साथ खड़े होने की उनकी छवि मजबूत हुई. 

इस चुनाव में भाजपा का सबसे बड़ा कार्ड था हिंदुत्व और धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण. लेकिन उसकी काट के लिए जिस तरह ममता चुनावी रैलियों में चंडीपाठ करती रही और खुद को हिंदू और ब्राम्हण की बेटी बताती रहीं, उसका उनको फायदा मिला. भाजपा लगातार ममता पर अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के आरोप लगाती रही है. नतीजे बताते हैं कि तृणमूल कांग्रेस को अल्पसंख्यक वोट तो एकमुश्त मिले ही, हिंदू वोटरों के बड़े तबके ने भी उसका समर्थन किया. मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों के नतीजों से साफ है कि उन दोनो अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में पारंपरिक रूप से कांग्रेस और लेफ्ट के वोट भी तृणमूल के खाते में गए. ममता ने पार्टी का चुनाव घोषणापत्र जारी करने के मौके पर लेफ्ट के वोटरों से तृणमूल का समर्थन करने की अपील की थी. 

ममता बनर्जी भाजपा नेताओं की ओर से लगाए गए आरोपों का बिंदुवार जवाब देकर अपने लिए सहानुभूति और समर्थन का माहौल बनाने में कामयाब रहीं. इसी तरह बीते लोकसभा चुनाव में जिस जंगलमहल इलाके में उनको भाजपा ने झटका दिया था वहां भी पूर्व माओवादी नेता छत्रधर महतो का पार्टी में शामिल करने की उनकी रणनीति कामयाब रही. इलाके में पार्टी का प्रदर्शन बेहतर रहा है. 

ममता की सबसे बड़ी कामयाबी रही स्थानीय भाषा में आम लोगों से जुड़ना. भाजपा के तमाम केंद्रीय नेता जहां अपनी रैलियों में हिंदी में भाषण देते रहे वहीं ममता बांग्ला बोल कर उनको करीब खींचने में कामयाब रहीं. प्रदेश भाजपा के पास ममता की कद-काठी का कोई नेता नहीं होने और मुख्यमंत्री पद का कोई चेहरा सामने नहीं होने का खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा है. केंद्रीय गृह मंत्री जिस तरह हर चरण के मतदान के बाद बढ़ा-चढ़ा कर भाजपा की जीत के दावे करते रहे उसे भी ममता ने अपने हित में अच्छी तरह भुनाया. 

राजनीतिक हलकों में यह तो पहले पहले ही माना जा रहा था कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के नतीजों का असर दूरगामी होगा. भाजपा की जीत जहां उसके लिए उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनावों के अलावा वर्ष 2024 के लोकसभा चुनावों में संभावनाओं की नई राह खोल सकती थी वहीं ममता की जीत के बाद अब उनके विपक्ष का सबसे प्रमुख चेहरा बनने की संभावना बढ़ गई है. 

इस विधानसभा चुनाव में सबसे ज्यादा नुकसान लेफ्ट, कांग्रेस और इंडियन सेक्युलर फ्रंट (आईएसएफ) वाले संयुक्त मोर्चा गठबंधन को हुआ है. अगर वर्ष 2016 से तुलना करें तो बंगाल की राजनीति में लेफ्ट और कांग्रेस पार्टी लगभग साफ हो गई हैं. भाजपा को भी आईएसएफ के अल्पसंख्यक वोटों में सेंधमारी की उम्मीद थी. लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ. 

अब वर्ष 2016 की तीन सीटों के मुकाबले इतनी सीटें जीत कर भाजपा भले बड़ी कामयाबी का दावा करते हुए जश्न मनाए, इन नतीजों ने उसे बहुत बड़ा झटका तो दिया ही है. लेकिन साथ ही यह बात भी सही है कि भाजपा एक मजबूत विपक्ष के तौर पर उभरी है और वह सत्ता हासिल करने में भले नाकाम रही हो, उसने बंगाल की राजनीति का स्वरूप तो बदल ही दिया है. 
 

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