अजय पांडे /जयमित्र सिंह बिष्ट
अल्मोड़ा .यह आज सुबह का अल्मोड़ा है. और यह कोहरा नहीं है. यह आसपास के जंगलों की आग से निकला धुआं है जो अब लोगों के घरों में घुसने लगा है. लोगों को सांस लेने में दिक्कत हो रही है. समूचा कुमाऊँ कई दिनों से जंगल की आग से धधक रहा है. अखबार बताते हैं कि कौसानी, बिनसर, रानीखेत, बागेश्वर, सोमेश्वर और तमाम जगहों पर हफ़्तों से जंगलों में आग लगी हुई है.
बीस दिन पहले मैंने इसी आग की बाबत कुछ लिखा था. उसके बाद एक बार थोड़ी सी बारिश हुई तो आग पर थोड़ा सा काबू हुआ था लेकिन अब स्थिति पूरी तरह बेकाबू हो चुकी है.वन विभाग और उसकी अग्निशमन शाखा और उसके कर्तव्यों और उसकी तैयारी के बारे में फिर से लिखना अपना समय बर्बाद करना होगा.
जंगलों में आग लगना कोई नई बात नहीं है. उससे जूझने के अपने तरीके स्थानीय तौर पर ईजाद किये गए थे और उन्हें सफलतापूर्वक लागू किया जाता था. हमसे पहले की पीढ़ियां इस आपदा से सलीके से जूझती रही हैं लेकिन अब ऐसा क्या हुआ कि तमाम अफसरशाही, नेतागिरी, अखबारबाजी और सोशल मीडिया के बावजूद हालात बिगड़ते चले जा रहे हैं.
सबसे बड़ा कारण तो यह समझ में आता है कि हमने एक समुदाय के रूप में सोचना और काम करना बंद कर दिया है. पार गाँव वाला सोचता है - किसी और के जंगल की आग से मेरा क्या लेना देना! वार गाँव वाला सोचता है - अभी मेरा घर तो बचा हुआ है. आगे की आगे देखेंगे! जब वार-पार दोनों गाँव आग की चपेट में आ जाते हैं तो वे मिलकर सोचने लगते हैं कि इतनी बड़ी सरकार है, यह तो उसका काम है. सरकार कहती है गाँव वाले खुद ही आग लगा देते हैं और चवन्नी के बजट में में हम आग बुझने जाएं या अपनी फाइलें निबटाएं.
जंगल में आग लगती है तो कीड़े-मकोड़े मरते हैं, तितलियां मरती हैं, छोटी झाड़ियाँ और नए पेड़ मरते हैं, घोंसले में उड़ने से लाचार चिड़ियों के बच्चे मरते हैं, वन्य जीवों के कुनबे उजड़ जाते हैं. प्रकृति और उसकी पारिस्थितिकी का संतुलन ऐसा डावांडोल हो जाता है कि अगर सब ठीक चला तब उसे सम्हलने में दस-बारह साल लग जाते हैं. पानी के प्राकृतिक स्रोत तबाह हो जाते हैं. यह कॉमन सेन्स की बात है जिसके बारे में स्कूलों के पाठ्यक्रमों में पढ़ाया जाता ही है.
मैं दोहरा रहा हूँ कि एक जिम्मेदार और सभ्य समुदाय-समाज के रूप में रहना भूल चुके हैं. अफसरशाही के पास तमाम संसाधन हैं लेकिन उसके पास न कोई तैयारी है न कोई विजन. आग बुझाने की ट्रेनिंग के जो कार्यक्रम दिसंबर जनवरी में गाँव-गाँव में चलाए जाने चाहिए थे उनकी याद मई-जून में आती है. जिन वनकर्मियों को अत्याधुनिक उपकरणों से लैस कर दिया जाना चाहिए था उनके पास एक लाठी है या हद से हद एक रेक जिसके दो दांत टूटे हुए हैं. पर्यावरण किसी भी राजनैतिक पार्टी के एजेंडे में कहीं नहीं है. हिमालय और उसके सरोकार किसी मैनीफेस्टो का हिस्सा नहीं बनते.जिस जिस को लगता है उसके जिले का कलक्टर या पुलिस कप्तान या एमेले या एमपी आकर आग बुझाएगा तो उसे ठिठुरते जाड़ों में अपने घर से दस मील दूर जाकर बचे-खुचे जलस्रोतों से पानी लेकर आने की अपनी तैयारी पूरी रखनी चाहिए.साभार
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