दया शंकर शुक्ल सागर
योगेश प्रवीन जी से पहली मुलाकात मुझे आज भी याद है. पत्रकारिता के वे बहुत शुरूआती दिन थे. शायद वो मायावती की पहली या दूसरे टर्म की सरकार थी. लखनऊ महोत्सव होने वाला था. और इस बार महोत्सव की थीम थी- 'गुजिश्ता लखनऊ.' तब महोत्सव लखनऊ के दिल में बसे बेगम हज़रत महल पार्क में हुआ करता था. और कमेटी ने फैसला किया था कि इस बार वे बेगम हज़रत महल पार्क में लक्खी दरवाजे का डूबलीकेट गेट बना रहे थे जिसका बजट लाखों में था. लखनऊ वाले जानते हैं कि कैसरबाग बारादरी के पूर्व-पश्चिम में दो विशाल और भव्य केसरिया दरवाजे हैं, जिनको लाखी दरवाजा कहा जाता है.
लाखी दरवाजे हमेशा से लखनऊ की शान रहे हैं. उस जमाने में वो दरवाजे जर्जर होकर खंडहर में तब्दील हो रहे थे. मुझे ये बात अजीब लगी. खंडहर हो रहे असली लक्खी दरवाजे की रिपलिका बनाने में सरकार लाखों रुपए बर्बाद कर रही है बजाए इसके कि ये पैसा इस धरोहर को बचाने में लगाया जाए. मुझे लक्खी दरवाजे का इतिहास जानना था तो योगेश जी के अलावा लखनऊ में कोई दूसरा विकल्प नहीं था. मैं तड़के ही उनके गरीबखाने पहुंच गया. वो तब तक सिर्फ मुझे मेरी खबरों से जानते थे. हम पहले कभी मिले नहीं थे. मैंने नाम बताया भर था कि मुस्कुराते हुए बोले-हुज़ूर आते आते बहुत देर कर दी. मैं हंसा और वो भी जोर से हंसे. उनकी हंसी में एक अजीब ख़नक थी. फिर स्टोरी और लक्खी दरवाजे पर उनसे लम्बी बात हुई. मेरे स्टोरी एंगेल से वो खुश हुए.
फिर उन्होंने बताया कि कैसे नवाब वाजिद अली शाह ने सन् 1850 में कैसरबाग के लाखी दरवाजे, एक लाख रुपए में बनवाए थे. ये उस जमाने में बहुत बड़ी रकम हुआ करती थी. तो इस तरह दरवाजे का नाम ही लाखी दरवाजा हो गया. लेकिन सब उसे लक्खी गेट ही कहते थे. ये दरवाजे नवाब वाजिद अली शाह के गद्दीनशीं होने से लेकर उनके लखनऊ से विदा होने तक के सफर के गवाह थे. कहा जाता है कि जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया और नवाब वाजिद अली शाह को देश निकाला दे दिया, तब उन्होने 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय' यह प्रसिद्ध ठुमरी गाते हुए अपनी रियासत से अलविदा कहा. उन्हें रुखसत करने के लिए लखनऊ की अवाम पहले से खड़ी थी.
सबकी आंखें भीगी थीं. लोगों ने चिल्लाकर-चिल्लाकर की रहे थे- खुदा हमारे शाह को सलामत रखे. उस दिन जो बादशाह लखनऊ छोड़कर गए, तो फिर कभी वे दोबारा न आ सके. खबर छपी और ज़ाहिरी तौर पर लखनऊ इंतजामियां को शर्मिंदगी उठानी पड़ी. केन्द्र का पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग भी सक्रिय हुआ और चार दिन में लक्खी गेट की मरम्मत का काम शुरू हो गया. कुछ ही दिनों में वो ऊपर से तो चमक गया लेकिन अंदर से वैसा ही जर्जर था. तो ऐसे योगेश प्रवीन के लिए लखनऊ का इंतजामियां एक एम्बुलेंस का इंतजाम नहीं करा सका. उनके जाने की खबर सुनते ही मुझे सबसे पहले अवध की उस मशहूर ठुमरी 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय' याद आ गई. अलविदा प्रवीन जी. लखनऊ आपको हमेशा याद रखेगा.
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