यशोदा श्रीवास्तव
काठमांडू .ओली के सरकार बर्खास्तगी के खिलाफ ओली विरोधियों का न्यायालय में जाने का दांव शायद उल्टा पड़ गया. राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने ओली के सरकार बर्खास्त करने की घोषणा करते ही जिस तत्परता से मध्यवाधि चुनाव की तिथि की घोषणा की थी,उससे ऐसा नहीं लगता था कि सरकार बर्खास्तगी के खिलाफ उच्च न्यायालय गए ओली विरोधियों को न्याय मिल पाएगा? क्योंकि नेपाल में भी सांविधानिक संस्थाओं में सरकार के मनमुताबिक लोग काबिज हैं.
न्यायालय ने ओली के सरकार भंग करने के खिलाफ फैसला सुनाते हुए ओली को विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दिया तब भी लगा कि ओली सरकार का बच पाना आसान नहीं है. ओली के अपने और ओली के विरोधी जिस तरह उनके खिलाफ लामबंद दिख रहे थे उससे निश्चय ही ओली सरकार पर संकट के बादल छाए हुए थे. विरोधियों से घिरे ओली की सरकार बचाने में चीन की खुली सक्रियता भी सामने आई है. काठमांडू में चीनी दूतावास अभी भी ओली के पक्ष में सक्रीय है. इधर न्यायालय का फैसला आने के बाद एक संभावना थी कि ओली पीएम पद से स्तीफा दे दें लेकिन इसके विपरीत वे सरकार बचाने के लिए गुणा भाग में सक्रिय हो गए. सरकार बचाने के लिए ओली की सक्रियता और रणनीति देख काठमांडू के राजनीतिक गलियारों में इस बात की खूब चर्चा है कि ओली विरोधियों को सड़क से संसद और न्यायालय तक सरकार बर्खास्तगी के विरोध का दांव उल्टा पड़ गया. इधर काठमांडू में एक दो दिन के बीच घटित राजनीतिक घटनाक्रम पर गौर करें तो मधेशी दल ओली सरकार के साथ खड़े दिख रहे हैं.
नेपाल राजनीति के जानकारों का कहना है कि लोकतांत्रिक संविधान लागू होने के बाद 2017 में जो आम चुनाव हुआ था,उससे नेपाल की जनता को बड़ी आशा थी लेकिन ओली भारत विरोध के नाम पर फर्जी राष्ट्रवाद और चीनपरस्त होने के सिवा जनकल्याण की कोई अनुभूति नहीं करा सके. नेपाली नागरिकों की यह धारणा पहाड़ से लेकर मैदानी इलाकों तक है.ऐसे में यदि मध्यवाधि चुनाव होने पाता तो ओली भारी अंतर से सत्ता से बाहर हो जाते. इस नन्हे राष्ट्र को मध्यवाधि चुनाव में झोकने की वजह का भी उनके पास कोई जवाब नहीं था जो वे जनता को दे पाते. स्थिति कुल मिलाकर ऐसी थी कि ओली अपने ही चलाए तीर का शिकार हो जाते.
लेकिन अब स्थितियों को ओली ने रणनीतिक कौशल के बदौलत अपने पक्ष में कर लिया है. ऐसा जान पड़ रहा है.ओली के इस "रणनीतिक कौशल" के पीछे चीन की भी भूमिका हो तो अचरज नहीं.
ओली ने अपनी सरकार बचाने के लिए मधेशी नेताओं पर बड़ा दांव चल दिया. उन्होंने करीब 35 सदस्यीय मधेशी सांसदों को अपने पक्ष में करने के लिए पहले दस मंत्रालयों का आफर दिया था. इन मंत्रालयों में मलाईदार विभागों को लेकर मधेशी नेता आपस में ही भिड़ गए. मधेशी नेताओं को आपस में लड़ता देख नेपाली कांग्रेस भी सरकार बनाने के प्रयास में जुट गई. नेपाली कांग्रेस के पूर्व पीएम शेरबहादुर देउबा के साथ माओवादी (प्रचंड गुट) और मधेशी दलों की संयुक्त पार्टी जसपा(जनता समाजवादी पार्टी) की बैठक में कुछ निष्कर्ष निकल पाता इससे पहले ओली ने मधेशी दलों पर दूसरा बड़ा दांव खेल दिया. देउबा के आवास पर जब नेपाली कांग्रेस और अन्य ओली विरोधी दलों की बैठक चल रही थी उसी वक्त पीएम ओली के आवास पर मधेशी दल के प्रमुख नेता महंत ठाकुर और ओली के बीच अलग खिचड़ी पक रही थी. दोनों के मध्य दस महत्वपूर्ण मंत्रालयों के अलावा एक और बड़ी डील हो गई. इस डील के मुताबिक नेपाल के अदालतों में मधेशी नेताओं के खिलाफ विचारधीन मामले वापस होंगे.ओली सरकार ने इस पर सहमति दे दी है.इस तरह 206 मधेशी नेताओं पर चल रहे मुकदमें वापस होंगे. ओली और महंत ठाकुर के बीच हुए समझौते के पीछे मधेशी दलों का सरकार को समर्थन देते रहना है.नेपाल संसद में सांसदों की दलीय गड़ना के अनुसार मधेशी दलों के समर्थन से ओली का विश्वास मत हासिल करना अब आसान हो गया.
गौरतलब है कि तकरीबन तीन साल तक ओली के साथ सरकार में भागीदार रहे पुष्प कमल दहाल"प्रचंड" ओली के प्रबल विरोधी के रूप में खड़े थे. प्रचंड के साथ ओली के खासमखास माधव कुमार नेपाल, बामदेव गौतम सरीखे कुछ अन्य लोग भी ओली के खिलाफ खड़े हो गए. सब के सब ओली के स्तीफे पर अडिग थे. ओली से स्तीफा मांगने के पीछे की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है. ओली यदि सरकार से हटते तो सरकार बनाने का पहला दावा प्रचंड का होता. लेकिन यहां पेंच यह था कि प्रचंड जिस माधव नेपाल तथा बामदेव गौतम समर्थक सांसदों के समर्थन की उम्मीद किए बैठे थे,उनका समर्थन मिल पाता,इसकी गारंटी नहीं थी क्योंकि बामदेव गौतम तथा माधव नेपाल समर्थक सांसद अपने अपने नेता को पीएम बनने की जिद पर अड़ जाते. ओली शायद ऐसी स्थिति उतपन्न होने की संभावना से वाकिफ थे. और शायद यही वजह रही जिससे वे किसी और को सरकार सरकार का खेल खेलने का मौका देने की अपेक्षा सरकार भंगकर मध्यवाधि चुनाव कराना बेहतर समझे.
फिलहाल आगे होता क्या है, ओली सरकार बचेगी या मध्यवाधि चुनाव होगा,कहना मुश्किल है लेकिन इस नन्हे राष्ट्र के अधकचरे लोकतंत्र के परिपक्व होने पर सवाल जस का तस है. नेपाल में लोकतंत्र तो बहाल हो गया लेकिन स्थिर सरकार के बिना नेपाली जनता परिवर्तन की अनुभूति से अभी भी वंचित है. यह अलग बात है कि राजनीतिक दलें बारी बारी सरकार का मजा ले रही हैं. इस बार और बार बार विपरीत विचारधारा वाली पार्टियों की सरकार में शामिल होते रहने से मधेश क्षेत्र में मधेशी नेता अविश्वसनीय व प्रभाव हीन होते जा रहे हैं. यही वजह है कि भारत सीमा से सटे नेपाली भूक्षेत्र तक कम्युनिस्ट पार्टियों का लाल झंडा गड़ता जा रहा है. अभी कुछ दिन पहले प्रमुख माओवादी नेता प्रचंड का भारत सीमा से सटे नेपाल के कपिलवस्तु जिले में दौरा अहम रहा ही,भारी तादाद में मधेशी नेताओं का मधेशी दल छोड़कर कम्युनिस्ट पार्टी ज्वाइन करना और भी बड़ी बात है. भारत सीमा से सटे नेपाल के 22 जिलों वाले मधेश क्षेत्र के करीब 95 लाख की आवादी को भारत परस्त माना जाता है. नेपाल में भारत सीमा के बिल्कुल करीब के इन 22 जिलों का चीनीकरण भारत के लिए चिंता का विषय होना चाहिए.
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