यादों का एक शहर और एक इमारत

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यादों का एक शहर और एक इमारत

संजय श्रीवास्तव  
इस बिल्डिंग से निकले हुए मुझको 33 साल हो चुके हैं. तब मैं यहां से निकला तो 19 साल का रहा होऊगा। उम्र तब से ढाई गुना बढ़ चुकी है. ये बिल्डिंग अब भी अक्सर यादों के सुहाने झोंके की तरह आती है कुछ पुराने पिटारे खोल देती है. इस हास्टल की आधी अधूरी तस्वीर कहीं से मिली तो इसका स्कैच बनाने की कोशिश की.   
करीब 50 कमरों की ये इमारत मध्य प्रदेश के शहडोल जिले में गर्वनमेंट पीजी कॉलेज का हास्टल है. जिसमें करीब 80 स्टूडेंट रहते थे. मैं यहां 1982 में फर्स्ट ईयर में पहुंचा. कमरा मिला रूम नंबर 13. एकदम सबसे किनारे वाली लॉबी का आखिरी कमरा. पीछे पहाड़ी नदी. आसपास झाड़-झंखाड़, पत्थर, और नदी की ओर जाती पगडंडी. कभी-कभार वहां शव भी जलाने के लिए लाए जाते थे.  
दोमंजिला इस इमारत में ग्राउंड फ्लोर पर फर्स्ट ईयर के स्टूडेंट रहते थे. सेकेंड फ्लोर पर सीनियर्स. ये हास्टल तब शहर के सबसे किनारे के बाहरी छोर पर था. लेकिन बैकग्राउंड इस हास्टल को बहुत खूबसूरत बना देता था. पहाड़ी नदी बरसात में अक्सर कुछ ही घंटों में उफनने लगती थी. इस पर बने पुल से जब रोज गड़गड़ाती हुई ट्रेनें गुजरती थीं और भाप इंजन रेलवे स्टेशन से कई किलोमीटर पहले स्थित ब्रिज से सीटी देना शुरू करता था, तो अलग ही फील होता था.   
हास्टल के कमरे खासे स्पेस वाले थे.  दो स्टूडेंट्स के लिए पर्याप्त स्पेस. दो तख्ते, दो कुर्सी-मेज आराम से आ जाते. इसके बाद भी कमरे में खाली जगह होती थी. साथ में हर कमरे के साथ बाहर बड़ी सी बालकनी. एक सुकून की तरह. कैंटीन एक महीने चलने के बाद बंद हो जाती थी. फिर रोज शहर की ओर सुबह-शाम तीन किलोमीटर की परेड होती थी.  
हर हास्टल की तरह यहां भी नियम, कायदे-कानून थे लेकिन हर हास्टल की तरह वो भी यहां रोज टूटते थे. हर कमरे में टेंपरेरी क्वॉयल हीटर छिपाकर रखा होता. सुबह की चाय इसी पर बनती. यूं तो हास्टल का मुख्य गेट रात दस बजे बंद हो जाता था लेकिन आधे से ज्यादा कमरों पर लटके ताले आधी रात के बाद ही खुलते थे, क्योंकि आधे से ज्यादा हॉस्टल तो शहर के तीन सिनेमा घरों में रात 09 से 12 से नाइट शो में जरूर जाता था. सबके हास्टल में घुसने के अपने जुगाड़ थे. हल्की-फुल्की कूद-फांदकर अपने कमरों में.  
वार्डन ने कई बार कोशिश की लेकिन फिर कुछ डिफरेंट रास्ता निकाला.  शायद उन्हें समझ में आ गया कि ये सब ऐसे मेंढक हैं, जिन्हें एक जगह पकड़कर रखना असंभव है. तोड़ ये निकाला कि सुबह पांच बजे हास्टल की छत पर सबका योगासन पक्का कर दिया गया. हालांकि योगासन वाला मामला भी ज्यादा चल नहीं पाया. 
हास्टल स्टाफ में कई चेहरे थे, सब एक से बढ़कर एक मजेदार कैरेक्टर- चौकीदार परमेश्वर अक्सर हमारी कैंटीन का ठेका भी ले लेता. बहुत खराब खाना खिलाता. ऐसी कैंटीन को तो बंद होना ही था. रोज सफाई करने वाला शौकीराम और एक बूढे बाबा जी.  
एक दूध देने वाला रोज आता था, कुछ छात्रों का मानना था कि वो गे है, हालांकि बाल-बच्चेदार था लेकिन कुछ लोगों के कमरों में जाकर पता नहीं क्या गूटर-गूं करता था. उन सभी कमरों में वो कम पैसे में ज्यादा दूध देने में कतई कोताही नहीं करता. वैसे उस वीरान इलाके से कभी कोई लड़की गुजरती नहीं थी लेकिन कभी कोई गुजर जाये तो क्या मजाल कि बालकनी गुलजार ना हो. हर हास्टल की तरह यहां भी कुछ पढाकू थे, जो अपने ही कमरे में घुसे होते. कुछ हमेशा दरबार लगाए रहते. ये वो लोग थे जो रात में पढाकूओं का दरवाजा जमकर पीटकर भाग जाते थे. किस्से तो बहुत हैं. ये स्कैच बनाते समय वो दिन ताजे हो गए, हालांकि उन दिनों को बीते हुए जितना समय निकल चुका, उसमें एक पीढी बुजुर्ग तो हो ही जाती है. लिहाजा मैं भी अब प्रौढावस्था में पहुंच चुका हूं. वैसे हास्टल के सभी साथी आजकल अच्छी खासी जिंदगियां बिता रहे हैं. 
शहडोल सुंदर शहर था. अब पता नहीं कैसा है. कई बार मन करता है यादों के उस शहर में एक बार हो आया जाए पर ऐसा कभी हो नहीं पाया. कहा जाता है कि 10-15 सालों में बहुत कुछ बदल जाता है, यहां तो तीन दशक से ज्यादा बीत चुके हैं. हालांकि आंख बंद करके सोचते ही शहर के बहुत से रास्ते, सड़कें, दुकानें, होटल और रेस्टोरेंट गूगल अर्थ की तरह दिमाग में आकार लेने लगते हैं कि कौन सी सड़क कहां तक जाती थी, कहां दाएं मुड़ती थी, कहां बाएं घुमती थी.  
बस स्टैंड से सबसे ज्यादा बसें रीवा के लिए जाती थीं, बाकि अगल बगल के कस्बों में व्यौहारी, बुढार, पाली, सिंहपुर, अमरकंटक, अमलाई, अनूपपुर और कोतमा की ओर. रेलवे स्टेशन सुंदर था. रेलवे के इर्द गिर्द कुछ कोलोनियल दौर के मकान और पानी की टंकियां थीं. शहर साफ-सुथरा और हरियाली से भरपूर था. अगल बगल के कस्बे से लोग यहां हर महीने खरीदारी करने आते थे.  
उन दिनों में शहर में चार पहिया वाहन इक्का-दुक्का नजर आते थे. एक्सकॉर्ट की काले रंग वाली राजदूत मोटरसाइकिलें ज्यादा दिखती थीं. वो जमाना शहर को पैदल नापने वालों का ज्यादा था. कुछ शहर आपकी यादों के गलियारे में हमेशा के लिए बस जाते हैं. भले आप उससे रुखसत हो चुके हों लेकिन वहां नहीं होते हुए भी उन्हें कभी कभी जी लिया करते हैं. 
 

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