राजकुमार सोनी
रायपुर .मशहूर उपन्यासकार, कथाकार और कवि तेजिंदर गगन अब हमारे बीच नहीं है. उनके निधन के बाद जितने लोगों ने भी उन्हें अपनी श्रद्धांजलि दी है उन सबने यह माना है कि वे एक अच्छे इंसान थे.किसी लेखक का लेखक होने से पहले अच्छा इंसान होना कितना जरूरी है... मैं कल से यही सोच रहा हूं. मुझे यह सोचना भी चाहिए क्योंकि डाक्टर, इंजीनियर, नेता, पत्रकार, चाटुकार से तो हमारी मुलाकात रोज़ होती है. एक इंसान से मिलना थोड़ा कठिन होता है. तेजिंदर जी हमारे बीच थे तो एक भरोसा था कि कभी हम गड़मड़ हुए तो उनसे कोई सलाह ले लेंगे. उनसे पूछ लेंगे कि बताइए... क्या करना चाहिए? यह भरोसा इसलिए भी कायम था क्योंकि वे खुद मजबूत विचारों के साथ थे. जो शख्स मजबूत विचारों के साथ होता है वह अपने साथी को टूटने भी नहीं देता है.
विचारधारा के लिए क्रांति जरूरी है या क्रांति के लिए विचारधारा? यह सवाल सदियों से हम सबको परेशान करता रहा है. तेजिंदर जी इस सवाल का हल जानते थे और बखूबी जानते थे. वे मानते थे कि जो मजबूती के साथ खड़ा रहेगा वह एक न एक दिन क्रांति कर ही लेगा. उनसे जब कभी भी बात होती थीं तो वे देश को हांफने के लिए मजबूर कर देने वाली स्थितियों पर अपनी चिंता अवश्य प्रकट करते थे. उनका कहना था- हमला चौतरफा है. बचने की कोई गुंजाइश दिखाई नहीं देती, लेकिन बचना होगा और रचना भी होगा. मुझे लगता है कि अपने निधन से कुछ पहले वे इसी तरह की जटिल परिस्थितियों से गुजर रहे थे कि खौफनाक - भयावह समय का मुकाबला कैसे और किस तरह से किया जा सकता है?
वे देर रात तक जागते थे और सुबह दस-ग्यारह बजे उनकी नींद खुलती थीं. ऐसे कई मौके आए जब रात को मेरी नींद खुली तो देखा कि वे फेसबुक पर सक्रिय थे. हालांकि मैं स्वयं भी कभी- कभी देर रात तक इधर- उधर की बेमतलब सी सक्रियता का हिस्सा बना रहता हूं लेकिन एक बार सुबह चार बजे जब वे फेसबुक पर नजर आए तो फोन लगाकर पूछ बैठा- क्या भाई साहब... आप भी सुबह जल्दी उठ जाते हैं? उन्होंने कहा- कौन कम्बख्त उठता है. सुबह उठने का काम बाबा रामदेव का है. मैं तो अब सोने जा रहा हूं. हा हा हा... .. तो क्या आप पूरी रात जागते रहे ? नहीं....नहीं... ऐसा नहीं कि सोना नहीं चाहता था. सोना चाहता था लेकिन कुछ भक्त लोग फेसबुक पर चले आए थे... उनको जवाब देना भी जरूरी था.
मुझे याद है जब पत्रिका के राज्य संपादक ज्ञानेश उपाध्याय जी ने पत्रिकार्ट कार्यक्रम को प्रारंभ करने के बारे में सोचा तो प्रभाकर चौबे जी को साथ लेकर वे दफ्तर आए थे. कार्यक्रम की पहली कड़ी के बाद कई और मौकों पर भी उन्होंने हमें अपना अमूल्य समय दिया. दफ्तर आकर वे अक्सर कहते- यहां आकर अच्छा लगता है. कोई तो है जो साहित्य/ संस्कृति और कला से जुड़े लोगों की चिंता कर रहा है. एक पाठक की हैसियत से मैं उनके करीब तो था ही, लेकिन लगातार मेल- मुलाकात और बातचीत ने कब उन्हें अपना बड़ा भाई मान लिया यह मैं नहीं जानता. मैं उनसे अपनी बहुत सी बातें शेयर करता था और एक स्थायी समाधान पाकर खुश भी होता था. मेरी दो किताबों के विमोचन अवसर पर वे मौजूद थे. उन्होंने उस रोज जो कुछ बोला वह ऐतिहासिक था. एक लाइन अब भी गूंज रही है- राजकुमार की किताब में वह रायपुर है जिसे मैं ढूंढ रहा था. निजी तौर पर मेरा मानना है कि तेजिंदर गगन छत्तीसगढ़ के एक सांस्कृतिक प्रतिनिधि थे. अव्वल तो वे हर कार्यक्रम में जाते नहीं थे लेकिन जिस कार्यक्रम में भी उनकी उपस्थिति होती वह आयोजन अपने आप महत्वपूर्ण हो जाता था.
एक छोटी सी बात का जिक्र यहां अवश्य करना चाहूंगा. अभी चंद रोज पहले कुछ सेवानिवृत्त सिख अधिकारियों ने एक संगठन बनाया. इस संगठन की गठन प्रक्रिया से कुछ पहले उन्होंने मुझे फोन पर कहा- मैं किसी पत्रकार को नहीं जानता हूं. बस... तुमको प्रेस कॉन्फ्रेंस में आना है. जब मैं निर्धारित समय पर होटल पहुंचा तो वहां पहले से मौजूद सरदारों ने जिस गर्मजोशी के साथ मेरा स्वागत किया वह अद्भुत था. जब तेजिंदर जी ने बताया कि संगठन क्यों बनाया जा रहा है तो आंखों की कोर में नमी आकर जम गई. उन्होंने कहा- हम सेवानिवृत्त सिख अफसरों ने यह संगठन इसलिए नहीं बनाया कि हमें चुनाव लड़ना है या सरकार को बताना है कि देखो हमारा वोट बैंक कितना मजबूत है. हमने यह संगठन इसलिए बनाया है ताकि शहर और गांव के गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दे सकें. गरीब आदमी को दवाई दे सकें. इस संगठन के अलावा तेजिंदर जी के ऐसे बहुत से मानवीय कामों का उल्लेख मैं यहां कर सकता हूं.
लेकिन इस तरह के उल्लेख से किस लेखक का सीना गर्व से ऊंचा होगा यह मैं नहीं जानता. अपने आस-पास विशेषकर छत्तीसगढ़ में जितने भी लेखकों को देखता हूं तो उनके भीतर एक दुकानदार को बैठा पाता हूं. ये लेखक उन्हीं जगहों पर जाते हैं जहां सरकार के मंत्री-संत्री रहते हैं. छत्तीसगढ़ के अधिकांश लेखक इस जुगाड़ में रहते हैं कि कैसे कोई पुरस्कार मिल जाए. कैसे मुफ्त की शराब गटकने को मिल जाए. ऐसे लेखक कभी बच्चों का नुक्कड़ नाटक देखने नहीं जाते. ऐसे लेखक कभी किसी मजदूर आंदोलन का हिस्सा नहीं बनते. क्या ऐसे रंडीबाज लेखकों को सही में कोई पढ़ भी रहा है? मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि छत्तीसगढ़ के अधिकांश लेखक ( कुछ पत्रकार भी इसमें शामिल हैं ) न केवल रंडीबाज हैं बल्कि सरकार के दल्ले भी हैं.
अब... मैं एक बार फिर इस बात पर लौटता हूं कि एक लेखक को लेखक होने से पहले एक बेहतर इंसान होना चाहिए या नहीं? मैं तो मानता हूं कि अच्छा लेखक भी वहीं हो सकता है जो बेहतर इंसान है. तेजिंदर जी का पूरा लेखन शोषित-पीड़ित लोगों के पक्ष में खड़ा है. वे बेहतर इंसान थे इसलिए मनुष्यता के साथ रहे और बेहतर लिख पाए. आपको आश्चर्य होगा कि जितना उन्हें पुरानी पीढ़ी पसंद करती हैं उससे कहीं ज्यादा उन्हें नौजवान पसन्द करते थे और मुझे भरोसा है कि सालों- साल आगे भी नई पीढ़ी उन्हें पसन्द करते रहेगी.
क्या कहूं आपको? बड़े भैया... भाई साहब... गगन जी या फिर तेजिंदर जी? अच्छे इंसान का कोई एक नाम तो होता होगा?चलिए भाई साहब....एक बहुत अनिवार्य सी बैठकी का वादा करके आप चले गए. ये आपने ठीक नहीं किया. देर- सबेर हम सबको भी वहीं आना है जहां आप चले गए हैं.
मौत का हर क्षण जवान होता है और जब मौत ने हर किसी पर अपना फंदा फेंक ही रखा है तो फिर ज्यादा क्या सोचना?सोचना क्या है जो भी होगा.साभार