विनय कांत मिश्र
दुनिया में बहुत कम ऐसे नामचीन होते हैं शोहरत जिसकी क़दम चूमती है। शहरयार उर्दू के ऐसे मशहूर शायर और बुलंद आवाज थे जिन्होंने अदब और फिल्मी दुनिया में नाम कमाया। उमराव जान से फिल्मी अदाकारा रेखा को यदि शोहरत और बुलंदी मिली तो इसमें उनके घुघरूओं की झनकती हुई आवाज़ में शहरयार के अलफा़ज़ कशिश पैदा करते थे। शहरयार के लिखे हुए उमरावजान, गमन और अंजुमन के गीत फिल्मी दुनिया में बहुत पसंद किए गए। मुजफ्फर अली ने उनसे इन फिल्मों के लिए गीत लिखवाया था।
शहरयार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उर्दू के प्रोफेसर थे। उनका वास्तविक नाम डाॅ अखलाक मोहम्मद खान था। 16 जून सन् 1936 ईस्वी को आंवला-बरेली में उनका जन्म हुआ था। उनके पिता पुलिस इंस्पेक्टर थे। तालीम हासिल करने के लिए वे अलीगढ़ आए और अंत तक यहीं के होकर रह गए। 13 फरवरी को अलीगढ़ में मेडिकल रोड स्थित अपने सफीना अपार्टमेंट में उन्होंने दुनिया से विदा ली। यकीन नहीं हो रहा था कि जागना जिसका मुकद्दर है वो कैसे सो गया। अब वे हमारे बीच सशरीर तो कभी नहीं रहेंगे लेकिन उनकी शायरी और उनके लिखे हुए गीत उन्हें हमारे बीच हमेशा जीवित और चर्चित रखेंगे। आखिर कला वर्षों तक हमारे बीच जीवित रहती है। 1961 ई में अलीगढ़ से उर्दू में एम ए करने के बाद वे उर्दू विभाग में ही 1966 में प्रवक्ता बन गए। तब तक प्रवक्ता बनने के पहले ही 1965 ई में उनकी ‘इश्क-ए-आजम’ किताब आ चुकी थी। 1987 ई में उनकी ’ख्वाब का दर बंद है’ आई जबकि 2005 में ‘शाम होने वाली है’ पुस्तक प्रकाशित हुई। 1987 ई में शहरयार को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया। इसके बाद 2008 ई में उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मशहूर शायर शहरयार साहब को सुनने का मौका एक बार मुझे भी मिला था। मौका अलीगढ़ विश्वविद्यालय परिसर में ही एक स्थानीय मुशायरे का था। अंत तक उन्हे सुनने के लिए हम सभी बैठे रह गए। श्रोताओं ने ‘उमरावजान’ के गीतों को सुनने की इच्छा रखी तो उन्होंने ‘दिल चीज क्या है, आप मेरी जान लीजिए’ सुनाया था। उस समय उन्होंने अपनी कई रचनाओं से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध किया था। ‘उमरावजान’ के गीतों में ‘इन आॅंखों की मस्ती के मस्ताने हजारों हैं’, ‘जुस्तजू जिसकी थी उसको तो ना पाया हमने’, ‘ये क्या जगह है दोस्तों, ये कौन सा दयार है’ और ‘जिंदगी जब भी तेरी बज्म में लाती है मुझे’ सुपर डुपर हिट हुए थे। फिल्म ‘गमन’ के लिए उनका लिखा हुआ गाना ’सीने में जलन, आॅंखों में तूफान सा क्यूॅं है? इस शहर में हर शख्स परेशां क्यूॅं है?’ बेहद हिट रहा था। फिल्म ‘फासले’ के लिए लिखा हुआ गाना ‘हम चुप हैं के दिल सुन रहे हैं’ और ‘यूॅं तो मिलने को हम मिले हैं बहोत’ लोगों द्वारा काफी सुना गया था। उनकी शायरी में एक खास किस्म की कशिश होती है और यही उनकी कविताई और रचना प्रक्रिया की ताकत है। जब वे लिखते हैं ’नींद की ओस से पलकों को भिगोये कैसे/जागना जिसका मुकद्दर हो वो सोये कैसे।’ तब हमें सहसा कबीर याद आते हैं। जरा याद कीजिए ’सुखिया सब संसार है खावे औ सोवै/दुखिया दास कबीर है जागे औ रोवै।’ तो यहाॅं पर शहरयार में कबीर जैसी समाज की व्यापक चिंता है। इस तरह वे कबीर की परंपरा में आंशिक रूप से जुड़ते हैं। दुनिया के दुःख दर्द से रू-ब-रू होते हुए शहरयार हमारे बीच नहीं रहे। उन्होंने लिखा है-‘वो कौन था, वो कहाॅं का था, क्या हुआ था उसे/सुना है आज कोई शख्स मर गया यारों।’ आज नामचीन शायर शहरयार हमारे बीच नहीं रहे; लेकिन अपने साहित्यिक अवदान द्वारा वे हमारे बीच युगों युगों तक जीवित रहेंगे।